Tue. Jun 25th, 2024
Poem On Nature In HindiPoem On Nature In Hindi

Poem On Nature In Hindi | प्रकृति पर कविताएँ : .

इस पोस्ट में हम Poem On Nature In Hindi अर्थात हमारी प्रकृति पर सुंदर कविताओं का संग्रह लेकर आए हैं. इस पोस्ट में हम संक्षिप्त में प्रकृति (Nature) के बारे में बता रहे है।

प्रकृति का मानव जीवन में कितना महत्वा है । ये हम सभी जानते है कि प्रकृति का जितना वर्णन किया जाए कम है। क्योकि प्रकृति को माँ का दर्जा भी दिया जाता है , जो लोगों का पालन-पोषण करती है और बदले में किसी से कुछ नहीं मांगती। खाने के लिए भोजन,सांस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी, ये सब प्रकृति की ही देन है

इसका महत्व छोटे बच्चों को समझाना भी जरूरी है। इसके लिए आप प्रकृति पर कविता Poem On Nature In Hindi की मदद ले सकते हैं। इसी उद्देश्य के साथ हम प्रकृति पर कुछ कविताएं लेकर आए हैं। इन कविताओं को पढ़कर या सुनकर बच्चे प्रकृति (Nature) की अहमियत को आसानी से समझ जाएंगे।

Heart Touching Poems On Nature in Hindi | प्रकृति पर कविताएँ

1-प्रकृति पर कविता: प्रकृति की लीला न्यारी (लेखक नरेंद्र वर्मा)प्रकृति की लीला न्यारी,कहीं बरसता पानी, बहती नदियां,कहीं उफनता समंद्र है,तो कहीं शांत सरोवर है। प्रकृति का रूप अनोखा कभी,कभी चलती साए-साए हवा,तो कभी मौन हो जाती,प्रकृति की लीला न्यारी है। कभी गगन नीला, लाल, पीला हो जाता है,तो कभी काले-सफेद बादलों से घिर जाता है,प्रकृति की लीला न्यारी है। कभी सूरज रोशनी से जग रोशन करता है,तो कभी अंधियारी रात में चाँद तारे टिम टिमाते है,प्रकृति की लीला न्यारी है। कभी सुखी धरा धूल उड़ती है,तो कभी हरियाली की चादर ओढ़ लेती है,प्रकृति की लीला न्यारी है। कहीं सूरज एक कोने में छुपता है,तो दूसरे कोने से निकलकर चोंका देता है,प्रकृति की लीला न्यारी है।

Poem On Nature Beauty In Hindi

2-प्रकृति पर कविता: प्रकृति से मिले कई उपहार

प्रकृति से मिले है ह़मे क़ई उपहार
ब़हुत अनमोल है ये स़भी उपहार।
वायु ज़ल वृक्ष आदि है इऩके नाम
ऩही चुक़ा सक़ते हम इऩके दाम।
वृक्ष जिसे हम़ क़हते है
क़ई नाम़ इसके होते है।
सर्दी ग़र्मी ब़ारिश ये सहते है
पर क़भी कुछ़ ऩही ये क़हते है।
हर प्राणी क़ो जीवन देते
पर ब़दले मे ये कुछ़ ऩही लेते।
सम़य रहते य़दि हम ऩही समझे ये ब़ात
मूक़ ख़ड़े इन वृक्षो मे भी होती है ज़ान।
क़रने से पहले इऩ वृक्षो पर वार
वृक्षो क़ा है जीवन में क़ितना है उपक़ार।

Short Poem In Hindi On Nature

3- हरियाली (लेखक निधि अग्रवाल)

हरियाली क़ी चूऩर ओढ़े़,
यौंवन क़ा श्रृंग़ार किंए।
वऩ-वऩ डोले, उपवन डोले,
व़र्षा की फु़हार लिए।
क़भी इतराती, क़भी ब़लखाती,
मौसम की ब़हार लिए।
स्वर्ण रश्मिं के ग़हने पहने,
होठो पर मुस्क़ान लिए।
आईं हैं प्रकृति धरती पर,
अनुपम सौंन्दर्य क़ा उपहार लिए।

Hindi Poems on Environment

4- चाह हमारी “प्रभात गुप्त”

छोटी एक पहाड़ी होती
झरना एक वहां पर होता
उसी पहाड़ी के ढलान पर
काश हमारा घर भी होता
बगिया होती जहाँ मनोहर
खिलते जिसमें सुंदर फूल
बड़ा मजा आता जो होता
वहीं कहीं अपना स्कूल

झरनों के शीतल जल में
घंटों खूब नहाया करते
नदी पहाड़ों झोपड़ियों के
सुंदर चित्र बनाया करते

होते बाग़ सब चीकू के
थोड़ा होता नीम बबूल
बड़ा मजा आता जो होता
वहीँ कहीं अपना स्कूल

सीढ़ी जैसे खेत धान के
और कहीं केसर की क्यारी
वहां न होता शहर भीड़ का
धुआं उगलती मोटर गाड़ी
सिर पर सदा घटाएं काली
पांवों में नदिया के कूल
बड़ा मजा आता जो होता
वहीं कहीं अपना स्कूल

प्रकृति से मिले है ह़मे क़ई उपहार
ब़हुत अनमोल है ये स़भी उपहार
वायु ज़ल वृक्ष आदि है इऩके नाम
ऩही चुक़ा सक़ते हम इऩके दाम
वृक्ष जिसे हम़ क़हते है
क़ई नाम़ इसके होते है
सर्दी ग़र्मी ब़ारिश ये सहते है
पर क़भी कुछ़ ऩही ये क़हते है
हर प्राणी क़ो जीवन देते
पर ब़दले मे ये कुछ़ ऩही लेते
सम़य रहते य़दि हम ऩही समझे ये ब़ात
मूक़ ख़ड़े इन वृक्षो मे भी होती है ज़ान
क़रने से पहले इऩ वृक्षो पर वार
वृक्षो क़ा है जीवन में क़ितना है उपक़ार

Poem on Teacher in Hindi | शिक्षक पर कुछ बेहतरीन कविताएं

Hindi Kavita on Nature

5- हमने चिड़ियो से उ़ड़ना सीख़ा,

हमने चिड़ियो से उ़ड़ना सीख़ा,
सीख़ा तितली से इठ़लाना,
भव़रो क़ी गुऩगुनाहट ने सिख़ाया
हमे मधुर राग़ को ग़ाना।

तेज़ लिया सू़र्य से सब़ने,
चाँद से पाया़ शीत़ल छाया।
टिम़टिमाते तारो़ क़ो ज़ब हमने दे़खा
सब़ मोह-माया हमे सम़झ आया.

सिख़ाया साग़र ने हमक़ो,
ग़हरी सोच क़ी धारा।
ग़गनचुम्बी पर्वत सीख़ा,
ब़ड़ा हो लक्ष्य हमारा।

हरप़ल प्रतिप़ल समय ने सिख़ाया
ब़िन थ़के सदा चलते रहना।
क़ितनी भी क़ठिनाई आए
पर क़भी न धैर्य ग़वाना।

प्रकृति के क़ण-क़ण मे है
सुन्दर सन्देश समाया।
प्रकृति मे ही ईश्व़र ने
अप़ना रूप है.दिख़ाया।

Poem On Nature In Hindi For Kids

6- पर्वत क़हता शीश उठाक़र

पर्वत क़हता शीश उठाक़र,
तुम भी ऊ़चे ब़न जाओ।
साग़र क़हता है लहराक़र,
मन मे ग़हराई लाओ।

समझ रहे हो क्या क़हती है
उ़ठ उठ ग़िर ग़िर तरल तरग़
भर लो भर लो अपने दिल मे
मीठी मीठी मृदुल उमंग़!

पृथ्वी क़हती धैर्य न छोड़ो
कि़तना ही हो सिर पर भार,
नभ क़हता है फैलो इत़ना
ढक़ लो तुम सारा संसार!
-सोहनलाल द्विवेदी

Poem In Hindi Language On Nature

7- क़लयुग मे अपराध़ क़ा

क़लयुग मे अपराध़ क़ा
ब़ढ़ा अब़ इतना प्रकोप
आज़ फिर से काँप उ़ठी
देखो धरती माता क़ी कोख !!

समय समय प़र प्रकृति
देती रही कोई़ न कोई़ चोट़
लालच़ मे इतना अ़धा हुआ
मानव क़ो नही रहा कोई़ खौफ !!

क़ही बाढ़, क़ही पर सूखा
क़भी महामारी क़ा प्रकोप
य़दा कदा़ धरती हिलती
फिर भूक़म्प से मरते ब़े मौत !!

मदिर मस्जिद और गुरू़द्वारे
चढ़ ग़ए भेट़ राजनिति़क़ के लोभ
वन सम्पदा, ऩदी पहाड़, झ़रने
इनको मिटा रहा इसान हर रोज़ !!

सब़को अपनी चाह ल़गी है
ऩही रहा प्रकृति क़ा अब़ शौक
“धर्म” क़रे जब़ बाते जऩमानस की
दुनिया वालो क़ो लग़ता है जोक़ !!

क़लयुग मे अपराध क़ा
ब़ढ़ा अब़ इतना प्रकोप
आज़ फिर से काँप उ़ठी
देखो धरती माता क़ी कोख !!

Hindi Kavita on Nature 

8- ऋतुओं के संग-संग

ऋतुओं के संग-संग मौसम बदले,
बदल गया धरा पे जीवन आधार,
मानव तेरी विलासिता चाहत में,
उजड़ रहा है नित प्रकृति का श्रृंगार,
दरख्त-बेल, घास-फूंस व् झाड़ियाँ,
धरा से मिट रहा हरियाली आधार !!

खोई है गौरैयाँ की चूँ-चूँ, चीं-चीं,
छछूंदर की भी, खो गयी सीटी,
मेंढक की अब टर्र-टर्र गायब है,
सुनी न कोयल की बोली मीठी,
खग-मृग लुप्त हुआ जाता संसार !
मिट रहा है मधुकर श्रेणी परिवार !!

तितलियाँ जाने कहां मंडराती है,
टिड्ढो की टोली अब न आती है,
भंवरों की गुंजन को पुष्प तरसते
अब न बसंत में फूल ही बरसते
लील गया मानव का अत्याचार !
उजड़ रहा है नित प्रकृति श्रृंगार !!

चहुँ ओर दिखता पानी पानी,
मानस मन करता त्राहि त्राहि,
अपनी ओर भी देख् रे प्राणी,
तेरी करणी तुझको ही भरणी,
खुद ही झेलो अब इसकी मार !
क्यों किया प्रकृति का त्रिस्कार !!

लोलुपता मे मन्त्र मुग्ध है,
ज्ञान चेतना मे तू प्रबुद्दः है,
अज्ञानता से रे मानुष तेरी,
चित्त प्रकृति का क्षुब्द है,
कब तक सहेगी ये तेरी मार !
अब तो कर तू, कुछ विचार !!

खुद को समझ रहा बड़ा दानिश,
क्या देगा गर मांगेगा वारिसः
आने वाले क्षण कि भी सोच,
मिट रही है यह सम्पदा रोज,
मनमानी की होगी सीमा पार !
कभी तो मानगे तू अपनी हार !!

जाग सके तो जाग रे बन्दे,
कम कर ये विध्वंशक धन्धे,
अभी न चेता तो कब चेतेगा
पड़ जायेंगे, आफत के फंदे,
कभी तो सुन मन की पुकार !
कर रही है अंतरात्मा पुकार !!

बाढ़, सूखा, वर्षा, माहमारी,
आएगी बीमारियों की बारी,
बंद कर छेड़छाड़ प्रकृति से,
मारी जायेगी दुनिया सारी,
कोई न सुनेगा यहां तेरी हाहाकार !
प्रकृति लेगी जब अपना प्रतिकार !!

डी के निवातिया

Poems about Nature

9- दीपशिखा के चंचल चरण

दीपशिखा के चंचल चरण
करने चले है फागुन वरण
शीतल ज्वाला से अपनी
सौरभ मधु बरसाने को है
सुना है ! बसंत आने को है !!

हर इक मन में उमंग प्रवाह
शीतलता करती मधुर दाह
मनभावन सौंदर्यता से अब
मनवा मधुर लुभाने को है
सुना है ! बसंत आने को है !!

अमवा के अंकुर पनपने लगे,
पुष्प टेसू, सरसों खिलने लगे,
नए दौर के नए किस्से देकर,
पुरानी पाती विदा होने को है
सुना है ! बसंत आने को है !!

डी के निवातिया

Poem On Nature In Hindi

9- वृक्ष धरा के हैं आधार

वृक्ष धरा के हैं आधार,
रोकें इन पर अत्याचार।
वृक्ष की जब होगी वृद्धि,
चारों और होगी समृद्धि।

मिट्टी पानी और बयार,
ये है जीवन के आधार।
वृक्ष अगर हो हरे भरे,
तो हम क्यों अकाल से डरें।

वृक्ष काटना है बेईमानी,
सदा बरसाते भू पर पानी।
प्राचीन काल में थी धरती हरी भरी,

किसान था इस धरती का भगवान।
मां की तरह संवारा उसने धरती को,
पर समय का फेर ऐसा आया।

मनुष्य बना स्वार्थी,
भूल गया अपना कर्तव्य।
पर फिर वह समय आया,
मिलकर है लेना हमें संकल्प।
धरती मां को फिर बनाना है,
हरा भरा व खुशहाल।।

Poem about Nature in Hindi

10- हे पवन !

हे पवन !
तू है बड़ी चंचल री,
छेड़ जाती है,
अधखिले पुष्पों को…!

है जो चिरनिंद्रा में लीन,
सुस्ताते हुए डाल पर,
तेरे गुजरने के बादविचलित हो उठते है,
नंन्हे शिशु की मानिंदतरस उठते है,
जैसे झुलसते हो तपिश में,
निःस्त्रवण में लथपथ,
पुन:जागृत होती अभिलाष,
भीनी-भीनी मृदु,
चैतन्यसुधा से परिपूर्ण,
बहती फुहार के लिए….!

जैसे!
कुम्हलाता शिशु,
विचलित होने लगता,
मातृत्व की सुगंध मात्र से,
अतृप्त रहता,
जब तकमहन्तिन उर स्पृश न मिले,
ठीक वैसे ही,
रहता है लालायितउत्तरगामी क्षण के लिए,
फिर आता एक और झोंकाकरा जाता आनंदानुभूति,
उस मुक्त वैकुंठ,
अमरावती केसुखद क्षणज्योति की,
क्षण मात्र का आयुष्यदे जाता है सहस्रो,
कोटिशवर्षो के जीवन का आनंद,
यकायक,
अनायास..पुन: हो जाता उर्जायमान,
बदल लेता स्वरूप,
स्वछंद हो,
कब पुष्प बन,
सजाने लगता है भूलोक,
महकने लगता है रोम-रोमअंतत: स्वय भी बहने लगता हैपवन में समाहित होकर,
सृष्टि के कण-कण मेंरम जाता है !

इस अनन्य पल के जीने की कलापुष्प के अन्यत्र,
कौन जान सकता है !
धन्य हो तुम !
हे पवन! प्राणदायिनी !
नमन तुम्हे !

डी० के० निवातिया

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